हिंदू कार्ड खेलकर मोदी ने जीती 2014 की बाजी
बीते लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भाजपा को मिली बहुमत ने अचानक देश के राजनीतिक फलसफे को बदल दिया। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहे वरिष्ठ पत्रकार हरीश खरे प्रकाशित होने जा रही अपनी पुस्तक ‘हाऊ मोदी वोन इट’ में 2014 के चुनाव को सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का चुनाव मानते हैं।
आम राजनीतिक धारणा से इतर आपकी पुस्तक में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को मोदी की जीत का कारण क्यों माना गया है? वर्ष 1984 और 2014 के आम चुनाव में कई समानता थी। मसलन 84 में ‘हिंदुस्तान खतरे में है’ का नारा देकर एक धर्म विशेष के खिलाफ अन्य धर्मों के लोगों का ध्रुवीकरण किया गया।
इसी प्रकार वर्ष 2014 में मोदी ने आक्रामकता की बजाय शालीनता से हिंदू कार्ड खेला। इस बार हिंदू, उसकी मान्यताएं और परंपरा खतरे में है, की बात प्रचारित की गई। साथ ही संघ ने पहली बार सार्वजनिक रूप से भाजपा का तन, मन और धन से समर्थन कर खुद के सांस्कृतिक संगठन होने के मिथ को स्वयं ही तोड़ दिया। जीत का आधार सुशासन, विकास और भ्रष्टाचार ही होता तो भाजपा की हवा पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और तमिलनाडु जैसे राज्यों में भी बहनी चाहिए थी।
:- आप किन प्रमाणों के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि भाजपा ने सांप्रदायिक आधार पर चुनाव लड़ कर जीत हासिल की?
मेरी किताब के मुख्य अंश डायरी के तौर पर हैं। इसमें कुछ भी गुप्त नहीं है। मसलन, मैंने प्रचार के दौरान मीडिया द्वारा भाजपा की ओर से दिए जा रहे संदेशों का संकलन किया। वैसे भी वर्ष 2009 में कांग्रेस को मिली जीत के बाद पार्टी को बदनाम करने की कोशिश हुई और विरोधी इसमें सफल ही रहे।
मसलन अन्ना के आंदोलन को ही लीजिए। इसमें जरूर कुछ अच्छे लोग भी थे, मगर इस आंदोलन के पीछे कुछ सोच भी थी। इस आंदोलन से कांग्रेस की छवि खराब हुई, मगर 2014 में सरकार के खिलाफ आंदोलन को जन्म देने वाले अन्ना कहां थे?
:- आपने 84 के चुनाव की तुलना 2014 से की है। तीन दशक में शिक्षा और युवाओं प्रगतिवादी सोच बढ़ी है, इसके बावजूद आपकी नजर में चुनाव का सांप्रदायिक होना क्या इशारा करता है?
सीधे शब्दों में कहें तो पूरी दुनिया की युवा पीढ़ी राष्ट्रवाद के गिरफ्त में रहती है। हर देश के राष्ट्रवाद का रूप अलग-अलग है। मसलन चीन के युवाओं का राष्ट्रवाद जापान विरोध तो वर्तमान रूस के युवाओं का राष्ट्रवाद पश्चिम विरोध है।
भारत की बात करें तो गांधी-नेहरू ने राष्ट्रवाद को मान्यताओं और परंपराओं से जोड़ा था, जो कि बीते दो-ढाई दशक में सांप्रदायिकता से जुड़ गया। भारत के युवाओं में भी पाकिस्तान के युवाओं की तरह ही एक बात घर कर गई कि दूसरे हमें परेशान कर रहे हैं।
:- यूपीए-1 की कामयाबी पर सवार मनमोहन सिंह क्या राजनीतिक कारणों से दूसरी पारी में अपेक्षित परिणाम नहीं दे पाए?
इसके कई कारण थे। अरसे बाद लगातार दूसरी बार सत्ता हासिल होने से जहां कांग्रेसी नेताओं के एक धड़े में स्थायी सत्ता भाव के साथ घमंड आया, वहीं मनमोहन के दूसरी बार पीएम बनने के बाद विरोधी खेमा उन्हें गिराने में जुट गया। इस बीच वैश्विक मंदी छाने के कारण जहां पीएम ने समझबूझ दिखाते हुए आर्थिक सुधारों की रफ्तार धीमी कर दी, वहीं कांग्रेस के एक वर्ग के साथ-साथ कॉरपोरेट वर्ग ने सुधारों में तेजी के लिए दबाव डाला।
बात नहीं माने जाने पर इसी वर्ग ने सरकार को नीतिगत लकवा मार जाने की बात प्रचारित की।
:- चुनाव में कांग्रेस की सबसे बड़ी चूक क्या रही?
कांग्रेस के जयपुर अधिवेशन में राहुल गांधी को पार्टी का उपाध्यक्ष बनाना बड़ी रणनीतिक भूल थी। इससे जहां सत्ता के तीन केंद्र स्थापित होते दिखे, वहीं यह फैसला देश के प्रजातांत्रिक मिजाज के खिलाफ भी चला गया। अगर राहुल की जगह कोई और उपाध्यक्ष होते तो सत्ता के कई केंद्र का विवाद सुलझ सकता था। फिर सत्ता के आखिरी 18 महीने में कांग्रेस संगठन स्तर पर नहीं संभल पाई। अगर राहुल खुद पीएम बनने का फैसला करते तो अपनी छवि के बारे में देश को राजनीतिक संदेश दे सकते थे।